नई दिल्ली/आर्ची तिवारी। आज सती प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे देश से लगभग जा चुकी है पर आज भी कई स्थान ऐसे हैं जहां इसी तरह की घटना देखने को या सुनने को मिल जाती है, हालांकि, ऐसे स्थानों का अनुपात बहुत कम है पर तब भी ऐसी भयानक प्रथा का संचालन आज भी मन को दहला देता है, तो जरा सोचिए आज से एक शताब्दी पूर्व इस प्रथा का कितना ज्यादा का प्रचलन होगा?
क्यों किया राजा राम मोहन ने इस प्रथा विरोध
1772 में जन्में राजा राम मोहन राय शुरू से ही दूरदर्शी और आधुनिक विचार वाले व्यक्ति थे, वे रूढ़िवादी विचारों तथा समाज दोनों की ही खुले आम निंदा करते थे, इसी कारण से समाज में भी उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता था. राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ सबसे पहले अभियान छेड़ा था, इस प्रथा के विरोध करने का कारण उनके नीजि जीवन से जुड़ा हुआ है.
एक दिन किसी कारण से उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई जिसमें उनके भाई के साथ-साथ उनकी भाभी को भी जला देने के लिए जोर जबरदस्ती की गई. उनकी भाभी सती होना नहीं चाहती थी. राम मोहन अपनी भाभी को माता की तरह पूजते थे तथा उन्होंने समाज से बैर लेकर अपनी भाभी को सती होने से बचा लिया. कुछ दिनों बाद राम मोहन राय जी किसी काम से शहर गये, उसी बीच घर वालों तथा आसपास के लोगों ने जोर जबरजस्ती करके उनकी भाभी को सती होने के बहाने जिंदा जला दिया. जब राम मोहन राय अपने घर वापस आये और यह समाचार सुना तब से ही उन्होंने समाज से इस कुप्रथा को खत्म करने का संकल्प ले लिया और एड़ी चोटी का दम लगा दिया.
आधुनिक पुरूष थे राजा राम मोहन राय
राजा राम मोहन राय के द्रढ़ संकल्प ने इतिहास में कई उदाहरण दर्ज किए हैं. उनकी दूरदर्शिता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने भी उनकी मदद की और इस कुप्रथा के खिलाफ अनेक कानून बनाये. राजा राम मोहन राय ने अपने ही देश में दूसरी सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी, जिसमें समाज को देश की स्वतंत्रता से पहले आत्म की स्वतंत्रता का ज्ञान कराया. राम मोहन राय ने “ब्रह्म समाज” की स्थापना की. राय को भारतीय पुनर्जागरण का ‘अग्रदूत’ भी कहा जाता है.